खबर दस्तक
संपादकीय :
प्रणव कुमार प्रीतम(आईटी इंजीनियर एवं स्वतंत्र लेखक)
भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में 25 जून 1975 की तारीख हमेशा एक काले धब्बे के रूप में याद की जाएगी। यह वह दिन था जब एक निर्वाचित प्रधानमंत्री ने व्यक्तिगत सत्ता बचाने के लिए पूरे देश को अंधेरे में धकेल दिया। आपातकाल के नाम पर संविधान के अनुच्छेद 352 का ऐसा दुरुपयोग हुआ, जिसने स्वतंत्र भारत की आत्मा को ही झकझोर दिया।
आपातकाल की घोषणा के पीछे कारण बताया गया था ‘आंतरिक अशांति’। परंतु सत्य यह था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध ठहराने के बाद उनकी सत्ता की कुर्सी हिल चुकी थी। सत्ता की लोलुपता ने लोकतंत्र को बलि का बकरा बना दिया।
इस दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकार छीन लिए गए। प्रेस पर सेंसरशिप थोप दी गई, पत्रकारों की कलम को तोड़ दिया गया। विपक्षी नेताओं को जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया और जनता की आवाज़ को बंदूकों के साए में दबा दिया गया। यह कैसा लोकतंत्र था, जहाँ सवाल पूछना अपराध बन गया था?
इंदिरा गांधी की नीतियों से भी ज्यादा विनाशकारी सिद्ध हुईं संजय गांधी की जबरन नसबंदी और स्लम क्लीयरेंस जैसी योजनाएँ। लाखों गरीबों को बेघर कर दिया गया, उनकी अस्मिता कुचल दी गई। 42वें संविधान संशोधन के जरिए सत्ता का केंद्रीकरण कर न्यायपालिका तक को बंधक बनाने की कोशिश की गई।
फिर भी इस अंधकारमय दौर में एक रोशनी की किरण रही – भारत की जनता। 1977 के आम चुनाव में जनता ने अहंकार को उखाड़ फेंका और यह सिद्ध कर दिया कि भारत का लोकतंत्र कमजोर हो सकता है, पर कभी पराजित नहीं।
निष्कर्ष और आपकी राय :
आज, जब हम 1975 की घटनाओं को याद करते हैं, तो यह सवाल सीधा हमारे सामने खड़ा होता है –क्या अगर कल कोई और सत्ता-पिपासु लोकतंत्र पर आक्रमण करे तो हम चुप रहेंगे?
लोकतंत्र को बचाने के लिए केवल वोट देना पर्याप्त नहीं है। यदि हम लापरवाह रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब फिर कोई सत्ता का भूखा नेता संविधान को गिरवी रख देगा।
लोकतंत्र कोई दिया नहीं जिसे हवा से बचाया जाए; यह तो आग है, जिसे बुझने न देने की ज़िम्मेदारी हर नागरिक की है।