खबर दस्तक
आरा :
जीतेन्द्र कुमार
बिहार का स्वास्थ्य विभाग चाहे जितने दावे कर ले कि सरकारी अस्पतालों में बेहतर इलाज़ और स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत उनकी सच्चाई को बेनकाब करती रहती है। ताजा मामला आरा के सदर अस्पताल से सामने आया है, जहाँ डॉक्टर की कुर्सी पर डॉक्टर नहीं बल्कि काउंसलर साहब मरीजों का इलाज करते नजर आए।
जी हाँ, यह कोई अफ़साना नहीं बल्कि हकीकत है, जिसकी तस्वीर और वीडियो दोनों ही सामने आ चुके हैं। यह शर्मनाक वाकया चर्म रोग विभाग का है, जहाँ विभागीय डॉक्टर रामनिवास सिंह अपनी ड्यूटी से नदारद हैं। उनकी जगह काउंसलर धर्मेंद्र कुमार सिंह ओपीडी में मरीजों की नब्ज टटोलते और नुस्ख़ा लिखते दिखाई दिए। तस्वीरें साफ बयान कर रही हैं कि सदर अस्पताल की व्यवस्था कितनी खोखली और लापरवाह है,सवाल यह है कि अगर अस्पतालों में डॉक्टर ही ग़ायब रहेंगे, तो इलाज़ करेगा कौन? क्या अब बिहार के सरकारी अस्पतालों में डिग्रीधारी डॉक्टरों की जगह काउंसलर, वार्ड बॉय और चपरासी हकीम बनकर इलाज़ करेंगे?
मज़ेदार बात यह है कि इस पूरे मामले पर अस्पताल प्रबंधन के ज़िम्मेदार अधिकारियों ने चुप्पी साध ली है। मानो उनके लिए यह सब ‘रोज़ का ड्रामा’ हो।विदित हो कि यह कोई पहला वाक़या नहीं है। सदर अस्पतालों में अक़्सर ही डॉक्टर अपनी ड्यूटी से गायब रहते हैं और मरीज़ों की मजबूरी का मज़ाक़ उड़ाते हैं। हर रोज़ हज़ारों की संख्या में लोग इलाज़ के लिए यहाँ आते हैं, लेकिन उन्हें मिलता है सिर्फ़ इंतज़ार, लापरवाही और अफ़सरशाही का बेजान चेहरा।
हालांकि बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंचों से बड़े-बड़े वादे करते हैं, जैसे बेहतर सुविधाएँ, मुफ़्त दवाइयाँ, आधुनिक मशीनें आदी, लेकिन आरा सदर अस्पताल जैसे मामलों में वह सब बस चुनावी भाषण सा लगता है। आम मरीज़ जिनकी जेब में न निजी अस्पताल का बिल भरने के पैसे हैं और न डॉक्टर की क्लिनिक का फीस देने की ताक़त, वे सरकारी अस्पतालों की चौखट पर अपनी उम्मीदें बाँधकर आते हैं। मगर यहाँ इलाज से ज़्यादा ‘इल्ज़ाम’ मिलता है। ज़रा सोचिए, जब विभागीय डॉक्टर साहब ड्यूटी से ग़ायब हों और काउंसलर उनकी जगह बैठकर इलाज़ करें, तो मरीज़ की जान किसके हाथों में है? यह सिर्फ़ लापरवाही नहीं, बल्कि सीधे-सीधे मरीज़ों की ज़िंदगी के साथ खेल है।
बिहार का सदर अस्पताल आज “इलाज़ का केंद्र” कम, और “बे-इलाज़ी का मज़ाक़” ज़्यादा बन चुका है। अब सवाल यह है कि क्या इस तमाशे पर सरकार कोई कारवाई करेगी, या फिर यह मामला भी फाइलों और प्रेस विज्ञप्तियों की धूल में दबकर रह जाएगा? सच यही है कि बिहार के सरकारी अस्पतालों में ‘बीमारी’ से बड़ी बीमारी है लापरवाही।

